मन का आंगन
मैं खेल रहा था आंगन में
जब तुमने आके हाथ मिलाया
हुई दोस्ती जो तुझसे
तो बगीचा मेरा मेहकाया |
अपनी ही आदत थी मुझको
जो छूट गयी आने पर तेरे
तू रुका कुछ दिन साथ ज़रूर
पर जाना तुझको आगे था ।
रोका तुझको मैंने फिर भी
आगे तू बढ़ा चला गया
जल्दी थी शायद तुझको
और आंगन महकाने की |
इंतज़ार किया कि आएगा तू
फिर लौट के इसी बाग मे
अब तो अरसे बीत गए हैं
उम्मीद भी मैंने छोड़ दी |
आंगन का दरवाज़ा तब से
सोच समझ के खोलता था
हर किसी से हाथ मिला के
दोस्ती करने से कतराता था |
लेकिन आया कोई साथ खोजते आज
फिर आंगन मेरा मेहक उठा
लगता है इस बार बाग में
हरियाली ना कम होगी |
Awesome bro as always.. keep writing.
ReplyDeleteसुन्दर रचना!,आभार। ''एकलव्य''
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